टॉकिंग सिटी ब्लूज़

Harsha Evani
4 min readMar 3, 2024

कुछ दिन पहले एक सपना देखा,
बहुत विचार-विमर्ष करने पर भी याद न आया
तो मैं थोड़ा चिन्तित हुआ।

अगले ही दिन डॉक्टर के पास गया और बेचैनी से उन्हें बताया,
‘मुझे सपने याद नहीं रहते’

‘कैसा सपना था’, वे पूछी
और मैं बोल पड़ा,
‘आज-कल हर सपना बुरा ही निकलता है’।

वे बोलीं, ‘ब्रीथ’,
और मेरी बेचैनी फिर बढ़ गयी।
‘आज-कल पता नहीं सब कुछ बेकार लगता है,
मन को शांति नहीं मिलती और
हर दिन ऐसा लगता है कि मैं किसी
‘आउट-ऑफ़-बॉडी-एक्सपीरियंस’ का इंतजार कर रहा हूँ।’

‘पर फ़्रायड पढ़ने पर पता चला कि,
सपनों के अर्थ हैं और उनका न याद रहना स्वाभाविक है।’

‘क्या देखते हो सपने में?’, वे पूछी
और घड़ी का काँटा
७ के तीसरे प्रहर पे था,
राग यमन का समय हो रहा था।

‘एक सपना थोड़ा याद आता है,
आप कहो तो बताऊँ …’

‘प्लीज़…’

मैं कहीं जा रहा था, और रास्ते में एक आदमी मेरा बैग चुरा जा रहा था,
मैं उसे लातें मारता गया,
पर वह तस्स-से-मस्स न हुआ।
उसकी लाल गरजती आँखें मेरी आँखें ताड रहीं थी,
मानो मेरे अंदर की मानवता जगाना चाह रहीं हो।

थोड़ा और आगे गया तो एक आदमी दिखा,
फुटपाथ पर पड़ा,
नशे में धुत्त।
उसकी पैंट गीली थी और फुटपाथ भी।
सामने मंदिर था।

थोड़ा दूर और गया तो एक कचरे का ढेर दिखा,
चप्पल, प्लॉस्टिक, खिलौने और नाले का पानी।
पानी में ‘चेरी ब्लॉसम’ पड़े हुए,
बग़ल में एक माँ अपने बेटे को नहला रही थीं।

थोड़ा दूर और गया तो एक तूफ़ान दिखा,
धूल का महासागर।
मैं ज़रा थम गया,
पर लोग उसके आर-पार निकलते गए।

थोड़ा दूर और गया तो एक काला आदमी दिखा,
जिससे खून बह रहा था।
एक अम्मा दिखी,
साढ़ी फटी हुई पर रंग-बिरंगी।
उसके साथ एक बच्चा,
भौहें कसी हुई पर नयन सहमे से।

थोड़ा दूर और गया तो
तीस के बस में पचास दिखे,
और आवाज़ मानो एक हज़ार बराबर।
सबकी शक्लें एक समान,
सब थके हुए, डरे हुए, एक ही मुखौटा,
और भाव तटस्थ।

थोड़ा आगे और गया तो एक दफ़्तर दिखा,
दफ़्तर के अंदर १०० आदमी दिखे,
और सब ख़ुद को थप्पड़ मार रहे थे।
थप्पड़ की आवाज़ मानो बिजली की तरह थी,
पूरे वातावरण में गरज रहीं थी।

थोड़ा दूर और गया तो एक दवाखाना दिखा,
बोर्ड पर लिखा था — ‘यहाँ ज़हर बेचते हैं’।
मैं हैरान वहाँ पहुँचा,
तो एक नर्स ने बिना पूछे हाथ में सायनाइड की गोली पकड़ा दी और दूसरे हाथ में एक पेपर थमा दिया।

मैंने गोली जेब में दबाई और पेपर टटोला,
बड़े लाल अक्षर में —
‘भगवान इसकी रक्षा करें।’

थोड़ा आगे और गया तो एक लड़की दिखी,
दोपहरी छाया में,
आँखें काली, श्रृष्टि पर ग्रहण,
होटों पर मुस्कान,
आँखों में बेबसी।

जब रात हुई और शहर बत्तियों की जगमगाहट से निखर रहा था,
तो लोगों की आबादी का पता चला।
पहले ग़ुस्सा आया,
फिर आवेश, फिर ईर्ष्या,
फिर क्रोध,
फिर उदासी,
फिर चुप्पी।

इस महासागर में मैं अब भी अकेला महसूस कर रहा था,
पर अब इससे ज्यादा किसी को क्या ही मिलेगा,
मैं यहाँ अपने कमरे में बैठा आपको अपना सपना सुना रहा हूँ,
जिसका वास्तविकता के साथ शायद ही कोई संबंध हो।

डॉक्टर बोली ‘उस क्षण में तुम्हें क्या आभास हुआ’?
और घड़ी का काँटा तेज़ी से अपना रास्ता तय कर रहा था,
घंटा पूरा होने वाला था,
और फिर भी ऐसा लग रहा था कि कुछ बातें अधूरी रह गई हैं।

‘मुझे लगा कि क्या हम वाक़ई में अकेले हैं?’

क्या मेरे ख़्याल सिर्फ़ मेरे हैं?

क्या मेरे पाप सिर्फ़ मेरे हैं?
हर दिन मैं इतने पाप करता हूँ जिनका कोई प्रायश्चित नहीं है।
क्या ख़ुद पर अत्याचार भी पाप है?

क्या मेरी प्रार्थनाएँ सिर्फ़ मेरी हैं?
प्रार्थना करने की इच्छा भी एक प्रार्थना ही है।

क्या मेरी ख़ुशी सिर्फ़ मेरी है और मेरी उदासी सिर्फ़ मेरी?

क्या सारी बुराईयाँ और आचाईयाँ मेरे अंदर ही हैं?

क्या हम सचमुच अकेले हैं?

तो फिर जो कुछ भी है मेरे अंदर ही है?
तो मैं अभी भी दुखी क्यों हूँ?

डॉक्टर पूछीं, ‘क्या चाहते हो इस सेशन से?’
मैं बोला, ‘आई वस फीलिंग कैंडा लॉन्सोम एंड ब्लू,
आई नीडेड समबॉडी टू टॉक टू।’

वे अपनी डायरी के पन्ने पलटने लगी,
मेरे ब्लूज़ उनके ग्रीन डायरी में।
मैं अपने आप को फिर वही अकेलेपन में धकेल रहा था,
अभी रात को फिरसे सपना देखना था,
और अगले हफ़्ते फिरसे सपना बताना था।

वे बोली, ‘८ बज चुके हैं, आपको कुछ और बताना है?’
और मैं मन ही मन विचारों का प्रवाह रोक रहा था,
और बोल पड़ा, ‘नहीं, शुक्रिया, अगले हफ़्ते मिलते हैं।’

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